0 1 mth

शनिवार के दिन शनि भगवान की पूजा होती है। काला तिल, काला वस्त्र, तेल, उड़द शनि को बहुत प्रिय हैं। इसलिए इनके द्वारा शनि की पूजा होती है। शनि की दशा को दूर करने के लिये यह व्रत किया जाता है। शनि स्त्रोत का पाठ भी विशेष लाभदायक सिद्ध होता है।

कथा− एक समय सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु इन ग्रहों में आपस में झगड़ा हो गया कि हम सब में सबसे बड़ा कौन है? सब अपने आप को बड़ा कहते थे। जब आपस में कोई निश्चय न हो सका तो सब के सब आपस में झगड़ते हुये इन्द्र के पास गये और कहने लगे कि आप सब देवताओं के राजा हो, इसलिए आप हमारा न्याय करके बताओ कि हम नवों ग्रहों में सबसे बड़ा कौन है? राजा इन्द्र इनका प्रश्न सुनकर घबरा गये और कहने लगे कि मुझमें यह सामर्थ्य नहीं है जो किसी को बड़ा या छोटा बताऊं। हां एक उपाय हो सकता है। इस समय पृथ्वी पर राजा विक्रमादित्य दूसरों के दुखों का निवारण करने वाला है। वही तुम्हारे दुखों का निवारण करेंगे। ऐसा वचन सुनकर सभी ग्रह देवता चलकर भूलोक में राजा विक्रमादित्य की सभा में जाकर उपस्थित हुये और अपना प्रश्न राजा के सामने रखा।राजा उनकी बात सुनकर बड़ी चिंता में पड़ गये कि मैं अपने मुख से किसको बड़ा और किसकों छोटा बताऊं। जिसको छोटा बताऊंगा वही क्रोध करेगा परंतु उनका झगड़ा निपटाने के लिये एक उपाय सोचा। उन्होंने सोना, चांदी, कांसा, पीतल, शीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक और लोहा नवों धातुओं के 9 आसन बनवाये। सब आसनों को क्रम से जैसे सोना सबसे पहले और लोहा सबसे पीछे बिछाये गये। इसके पश्चात राजा ने सब ग्रहों से कहा कि आप सब अपने−अपने सिंहासनों पर बैठिये जिसका आसन सबसे आगे वह सबसे बड़े और जिसका आसन सबसे पीछे वह सबसे छोटा जानिये क्योंकि लोहा सबसे पीछे था और वह शनिदेव का आसन था इसलिए शनिदेव ने समझ लिया कि राजा ने मुझको छोटा बना दिया है। इस पर शनि को बड़ा क्रोध आया और कहा कि राजा तू मेरे पराक्रम को नहीं जानता। सूर्य एक राशि पर एक महीना, चंद्रमा सवा दो महीना दो दिन, मंगल डेढ़ महीना, बृहस्पति तेरह महीने, बुध और शुक्र एक महीने परंतु मैं एक राशि पर ढाई अथवा साढ़े सात साल तक रहता हूं। बड़े−बड़े देवताओं को भी मैंने भीषण दुख दिया है। राजन! सुनो रामजी को साढ़े साती आई और वनवास हो गया और रावण पर आई तो राम और लक्ष्मण ने सेना लेकर लंका पर चढ़ाई कर दी। रावण के कुल का नाश कर दिया। हे राजा अब तुम सावधान रहना। राजा कहने लगा जो कुछ भाग्य में होगा देखा जायेगा। उसके बाद अन्य ग्रह तो प्रसन्नता के साथ चले गये परंतु शनिदेव बड़े क्रोध के साथ वहां से गये। कुछ काल व्यतीत हो जाने पर जब राजा को साढ़े साती की दशा आई तो शनिदेव घोड़ों के सौदागर बनकर अनेक सुंदर घोड़ों के सहित राजा की राजधानी में आये। जब राजा ने सौदागर के आने की खबर सुनी तो अश्वपाल को अच्छे−अच्छे घोड़े खरीदने की आज्ञा दी। अश्वपाल ऐसी अच्छी नसल के घोड़े देखकर और उनका मूल्य सुनकर चकित हो गया और तुरंत ही राजा को खबर दी।राजा उन घोड़ों को देखकर एक अच्छा सा घोड़ा चुनकर सवारी के लिये चढ़ा। राजा के घोड़े की पीठ पर चढ़ते ही घोड़ा जोर से भागा। घोड़ा बहुत दूर एक बड़े जंगल में जाकर राजा को छोड़कर गायब हो गया। इसके बाद राजा अकेला जंगल में भटकता फिरता रहा। बहुत देर के बाद राजा ने भूख और प्यास से दुखी होकर भटकते−भटकते एक ग्वाले को देखा। ग्वाले ने राजा को प्यास से व्याकुल देखकर पानी पिलाया। राजा की उंगली में एक अंगूठी थी। उसे निकाल कर प्रसन्नता के साथ ग्वाले को दे दी और शहर की ओर चल दिया। राजा शहर में पहुंचकर एक सेठ की दुकान पर जाकर बैठ गया और अपने आपको उज्जैन का रहने वाला तथा अपना नाम वीका बताया।

सेठ ने उसको कुलीन मनुष्य समझकर जल आदि पिलाया। भाग्यवश उस दिन सेठ की दुकान पर बिक्री बहुत अधिक हुई। तब सेठ उसको भाग्यवान पुरुष समझकर भोजन कराने के लिये अपने साथ ले गया। भोजन करते समय राजा ने आश्चर्य की बात देखी कि खूंटी पर हार लटक रहा है और वह खूंटी उस हार को निगल रही है। भोजन के पश्चात कमरे में आने पर जब सेठ को कमरे में हार न मिला तो सबने यही निश्चय किया कि सिवाय वीका के और कोई इस कमरे में नहीं आया अतः अवश्य ही उसी ने हार चोरी किया है परंतु वीका ने हार लेने से मना कर दिया।

इस पर पांच−सात आदमी इकट्ठे होकर उसको फौजदार के पास ले गये। फौजदार ने उसको राजा के सामने उपस्थित कर दिया और कहा कि ये आदमी तो भला प्रतीत होता है, चोर मालूम नहीं होता। परंतु सेठ का कहना है कि इसके सिवाय और कोई घर में आया ही नहीं, अवश्य ही इसने चोरी की है। तब राजा ने आज्ञा दी कि इसके हाथ−पैर काटकर चौरंगिया किया जाये। राजा की आज्ञा का तुरंत पालन किया गया और वीका के हाथ पैर काट दिये गये।इस प्रकार कुछ काल व्यतीत होने पर एक तेली उसको अपने घर ले गया और कोल्हू पर उसको बिठा दिया। वीका उस पर बैठा हुआ जुबान से बैल हांकता रहा। शनि की दशा समाप्त हो गई और एक रात को वर्षा ऋतु के समय वह मल्हार राग गाने लगा। उसका गाना सुनकर उस शहर के राजा की कन्या उस राग पर मोहित हो गई और दासी को खबर लेने को भेजा कि शहर में कौन गा रहा है। दासी सारे शहर में फिरती−फिरती क्या देखती है कि तेली के घर में चौरंगिया राग गा रहा है। दासी ने महल में आकर राजकुमारी को सब वृतान्त कह सुनाया। बस उसी क्षण राजकुमारी ने अपने मन में प्रण कर लिया कि चाहे कुछ हो मैं इस चौरंगिया के साथ विवाह करूंगी।

प्रातःकाल होते ही जब दासी ने राजकुमारी को जगाना चाहा तो राजकुमारी अनशन व्रत लेकर पड़ी रही। तब दासी ने रानी के पास जाकर राजकुमारी के न उठने का वृतांत कहा। रानी ने तुरंत ही वहां पर आकर राजकुमारी को जगाया और उसके दुख का कारण पूछा, तो राजकुमारी ने कहा कि माताजी मैंने यह प्रण कर लिया है कि तेली के घर में जो चौरंगिया है उसी के साथ विवाह करूंगी। माता ने कहा पगली यह क्या बात कह रही है? तुझको किसी देश के राजा के साथ ब्याहा जायेगा। कन्या कहने लगी कि माताजी मैं अपना प्रण कभी नहीं तोडूंगी। माता ने चिंतित होकर यह बात राजा को बताई। जब महाराज ने भी आकर यह समझाया कि मैं अभी देश−देशांतर में अपने दूत भेजकर सुयोग्य, रूपवान एवं बड़े से बड़े गुणी राजकुमार के साथ तुम्हारा विवाह करूंगा, ऐसी बात तुमको कभी नहीं विचारनी चाहिये।कन्या ने कहा− पिताजी मैं अपने प्राण त्याग दूंगी परंतु दूसरे से विवाह नहीं करूंगी। इतना सुनकर राजा ने क्रोध से कहा यदि तेरे भाग्य में ऐसा ही लिखा है तो जैसी तेरी इच्छा हो वैसा ही कर। राजा ने तेली को बुलाकर कहा कि तेरे घर में जो चौरंगिया है उसके साथ मैं अपनी कन्या का विवाह करना चाहता हूं। तेली ने कहा कि यह कैसे हो सकता है, कहां आप हमारे राजा और कहां मैं एक नीच तेली। परंतु राजा ने कहा कि भाग्य लिखे को कोई टाल नहीं सकता, अपने घर जाकर विवाह की तैयारी करो। राजा ने उसी समय तोरण और वन्दनवार लगवाकर अपनी राजकुमारी का विवाह चौरंगिया बने विक्रमादित्य के साथ कर दिया।

रात्रि को जब विक्रमादित्य और राजकुमारी महल में सोये हुये थे तो आधी रात के समय शनिदेव ने विक्रमादित्य को स्वप्न दिया कि राजा तुमने मुझको छोटा बताकर कितना दुख उठाया? राजा ने क्षमा मांगी। शनिदेव ने प्रसन्न होकर विक्रमादित्य को हाथ पैर दिये। तब राजा ने कहा महाराज मेरी प्रार्थना स्वीकार करें कि जैसा दुख आपने मुझे दिया है ऐसा और किसी को न दें। शनिदेव ने कहा कि तुम्हारी यह प्रार्थना स्वीकार है, जो मनुष्य मेरी कथा सुनेगा या कहेगा उसको मेरी दशा में कभी किसी प्रकार का दुख नहीं होगा और जो नित्य ही मेरा ध्यान करेगा या चींटियों को आटा डालेगा उसके सब मनोरथ पूर्ण होंगे। इतना कहकर शनिदेव अपने धाम को चले गये।

राजकुमारी की आंख खुली और उसने राजा के हाथ पांव सही सलामत देखे तो आश्चर्य चकित हो उठी। उसको देखकर राज ने अपने समस्त हाल कहा कि मैं उज्जैन का राजा विक्रमादित्य हूं। यह बात सुनकर राजकुमारी अत्यन्त प्रसन्न हुई। प्रातःकाल राजकुमारी से उसकी सखियों ने पूछा तो उसने अपने पति का समस्त वृतांत कह सुनाया। तब सबने प्रसन्नता प्रकट की और कहा कि ईश्वर ने आपकी मनोकामना पूर्ण कर दी। जब उस सेठ ने यह बात सुनी तो वह विक्रमादित्य के पास आया और राजा विक्रमादित्य के पैरों पर गिरकर क्षमा मांगने लगा कि आप पर मैंने चोरी का झूठा दोष लगाया। अतः आप मुझको जो चाहें दण्ड दें। राजा ने कहा− मुझ पर शनिदेव का कोप था इसी कारण यह सब दुख मुझको प्राप्त हुआ। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं, तुम अपने घर जाकर अपना कार्य करो।सेठ बोला कि मुझे तभी शांति होगी जब आप मेरे घर चलकर प्रीतिपूर्वक भोजन करेंगे। राजा ने कहा कि जैसी आपकी मर्जी हो वैसा ही करें। सेठ ने अपने घर जाकर अनेक प्रकार के सुंदर भोजन बनवाये और राजा विक्रमादित्य को प्रीतिभोज दिया। जिस समय विक्रमादित्य भोजन कर रहे थे एक अत्यंत आश्चर्य की बात सबको दिखाई दी जो खूंटी पहले हार निगल गई थी, वह अब हार उगल रही है। जब भोजन समाप्त हो गया तो सेठ ने हाथ जोड़कर बहुत−सी मोहरें राजा को भेंट कीं और कहा कि मेरे श्रीकंवर नामक एक कन्या है उसका पाणिग्रहण आप करें। इसके बाद सेठ ने अपनी कन्या का विवाह राजा के साथ कर दिया और बहुत−सा दान−दहेज दिया।

इस प्रकार कुछ दिनों तक वहां निवास करने के पश्चात विक्रमादित्य ने शहर के राजा से कहा कि अब मेरी उज्जैन जाने की इच्छा है। फिर कुछ दिन के बाद विदा लेकर राजकुमारी मनभावनी, सेठ की कन्या श्रीकंवरी तथा दोनों जगह के दहेज में प्राप्त अनेक दास, दासी, रथ और पालकियों सहित विक्रमादित्य उज्जैन की तरफ चले। जब शहर के निकट पहुंचे और पुरवासियों ने राजा के आने का सम्वाद सुना तो समस्त उज्जैन की प्रजा अगवानी के लिये आई। तब बड़ी प्रसन्नता से राजा अपने महल में पधारे। सारे शहर में बड़ा भारी महोत्सव मनाया गया और रात्रि को दीपमाला की गई। दूसरे दिन राजा ने शहर में यह सूचना कराई कि शनिश्चर देवता सब ग्रहों में सर्वोपरि हैं। मैंने इनको छोटा बताया इसी से मुझको यह दुख प्राप्त हुआ। इस कारण सारे शहर में सदा शनिश्चर की पूजा और कथा होने लगी। राजा और प्रजा अनेक प्रकार के सुख भोगती रही। जो कोई शनिश्चर की इस कथा को पढ़ता या सुनता है, शनिदेव की कृपा से उसके सब दुख हो जाते हैं। शनिवार की कथा को व्रत के दिन अवश्य पढ़ना चाहिये। ओम शांति, ओम शांति, ओम शांति।।
शनिदेव जी की आरती

चार भुजा तहि छाजै, गदा हस्त प्यारी। जय.

रवि नन्दन गज वन्दन, यम अग्रज देवा।

कष्ट न सो नर पाते, करते तब सेना। जय.

तेज अपार तुम्हारा, स्वामी सहा नहीं जावे।

तुम से विमुख जगत में, सुख नहीं पावे। जय.

नमो नमरू रविनन्दन सब ग्रह सिरताजा।

बन्शीधर यश गावे रखियो प्रभु लाजा। जय.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Somewhere in news